Monday, May 2, 2011
हम... या शायद मैं ......
शुतुरमुर्ग के बारे में कहा जाता है की जब तूफान आता है तो वो अपना मुह रेत में खुसा लेता है और उसे लगता है की तूफान चला गया क्युकि वो उसे देख नही पाता.. और इस तरह वो अपनी जान गवा बैठता है .. पढकर पहले उसकी मुर्खता पर हसी आती थी पर आज लग रहा है की कही न कही हम भी उस शुतुमुर्ग की तरह ही है जो चाहते है या सोचते है की अगर हम दुनिया के बारे में नही सोचेंगे तो वो हमारे बारे में नही सोचेगी , और इसी खुशफहमी में जीते रहने है.. पर होता कुछ अलग ही है.. दुनिया हमारे बारे में सोचती रहती है बोलती रहती है और हम उन सब सही गलत बातो से अनजान जीते रहते है... पर ये भी एक सच है की इस दुनिया से कट के ज़ी पाना तो नामुमकिन है और जब हम होश संभाल के दुनिया की तरफ देखते है तो हमें हम तो दिखते ही नही है ... हमें कोई और ही दिखता है .. जिसे दुनिया ने अपने हिसाब से बनाया है ..वो इन्सान हमें अनजाना सा लगता है ... हमें यकीन नही होता की वो हम ही है .. और हम फिर दुनिया से दूर होते चले जाते है .. पर इस बार वो दुरी ख़ुशी नही देती .. और हम बस खुद से यही कह पाते है ... काश... काश..
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हम शतुरमुर्ग से कम नहीं है हम भी समस्याओं से मुंह मोड़ते है सवेरे सवेरे आंख खोल दी , धन्यवाद ......
ReplyDeletekya baat hai..
ReplyDeleteBahut chhoti par goodh baat kahi Tumne Shweta..Chintan kar iss tarah ke vicjharon ka sampreshan hi hamein jeene ki seekh deta hai...
ReplyDeleteBara hun to kah hi sakta hun ..Jeeti raho...
Hardik shubhkamnayen.
श्वेता जी
ReplyDeleteसस्नेह अभिवादन !
आपकी पुरानी पोस्ट्स भी पढ़ी हैं अभी …
भावों और विचारों का झरना यूं ही बहता रहे … आमीन !
प्रस्तुत पोस्ट भी अच्छी लगी -
कहीं न कहीं हम भी उस शुतुरमुर्ग की तरह ही हैं जो चाहते हैं या सोचते हैं कि अगर हम दुनिया के बारे में नही सोचेंगे तो वो हमारे बारे में नहीं सोचेगी , और इसी खुशफहमी में जीते रह्ते है…
बहुत दार्शनिक है आपकी बात !
सुंदर और महत्वपूर्ण विचारों के लिए आभार !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार